भागलपुर की राजनीति में बागियों का ‘ब्लास्ट’, एनडीए के लिए तीन सीटें बन सकती हैं सिरदर्द

  • बागियों की चुनौती और एनडीए का संकट

मदन, भागलपुर 

बिहार विधानसभा चुनाव के इस दौर में एनडीए को केवल महागठबंधन से नहीं, बल्कि अपने ही घर के भीतर उठ रहे असंतोष के ज्वालामुखी से भी मुकाबला करना पड़ रहा है।

भागलपुर ज़िले की सात विधानसभा सीटों में से भागलपुर, कहलगांव और गोपालपुर — ये तीन सीटें इस बार एनडीए के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभर रही हैं। क्योंकि यहां पार्टी से नाराज़ कई नेता निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनावी मैदान में उतरने की तैयारी में हैं। यह वही स्थिति है, जिसने पिछले दो चुनावों में भाजपा को सत्ता के दरवाज़े पर पहुंचकर भी पीछे धकेल दिया था। इतना ही नहीं, जैसे-जैसे बाकी चार सीटों पर नामों का ऐलान होगा, वैसे ही उन विधानसभा सीट सुल्तानगंज, नाथनगर, पीरपैंती और बिहपुर से भी बागियों के भी चेहरे सामने आने लगेंगे।

भागलपुर सीट: टिकट से बड़ी ‘प्रतिष्ठा की लड़ाई’

भागलपुर विधानसभा सीट भाजपा के भीतर मंथन और मतभेद दोनों की मिसाल बन गई है। पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के पुत्र अर्जित शाश्वत चौबे और भाजपा नेता प्रशांत विक्रम — दोनों ने टिकट कटने के बाद बगावत का बिगुल फूंक दिया है। अर्जित शाश्वत ने 17 अक्टूबर को नामांकन की तैयारी कर ली है, जबकि प्रशांत विक्रम भी 18 अक्टूबर को निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में नामांकन दाखिल करेंगे।

राजनीतिक समीकरण

भाजपा के घोषित उम्मीदवार रोहित पांडेय को अब पार्टी समर्थकों के साथ-साथ दो बागी चेहरों से भी वोटों की प्रतिस्पर्धा झेलनी होगी।

2020 के चुनाव में अजीत शर्मा (कांग्रेस) ने 65,502 वोट से जीत दर्ज की थी जबकि भाजपा उम्मीदवार रोहित पांडेय को 64,389 वोट मिले थे। मात्र 1,113 वोटों का अंतर और तीसरे मोर्चे या बागी उम्मीदवारों के वोटों ने भाजपा की हार सुनिश्चित की थी।

 2020 और 2015 का सबक

2015 में भी बागी विजय साह ने 15,212 वोट काटकर भाजपा प्रत्याशी अर्जित चौबे को हराया था। यह आंकड़े बताते हैं कि बागी उम्मीदवारों का असर केवल “प्रतीकात्मक” नहीं बल्कि निर्णायक रहा है। अगर इस बार भी वही इतिहास दोहराया गया तो भाजपा के लिए यह सीट तीसरी बार हाथ से निकल सकती है।

कहलगांव: सीट बदली तो समीकरण बिगड़ेंगे

कहलगांव विधानसभा सीट भाजपा के लिए एक और मुश्किल भरा मोर्चा है। यह सीट अब जदयू के खाते में जाने की चर्चा में है। इससे भाजपा विधायक पवन यादव बेहद नाराज़ बताए जा रहे हैं। कहलगांव से जदयू के शुभानंद मुकेश की तैयारी चल रही है, जबकि पवन यादव के समर्थक “अपमान का जवाब मैदान में” देने की रणनीति बना रहे हैं।

 राजनीतिक मायने

पवन यादव का असंतोष अगर निर्दलीय रूप में प्रकट होता है, तो इसका सीधा असर एनडीए के मतों पर पड़ेगा। कहलगांव जैसी सीट, जहां सामाजिक समीकरण और व्यक्तिगत पकड़ दोनों निर्णायक भूमिका निभाते हैं, वहां किसी भी स्तर की बगावत पार्टी के लिए भारी पड़ सकती है।

गोपालपुर सीट: गोपाल मंडल की बगावत तय

 गोपालपुर विधानसभा सीट जदयू के लिए इस बार सबसे बड़ी परीक्षा है। यहां से लगातार चार बार के विधायक गोपाल मंडल का टिकट काटा जा चुका है और खबर है कि बुलो मंडल को टिकट दिया जा सकता है। ऐसे में गोपाल मंडल का बागी होना लगभग तय है।

 राजनीतिक प्रभाव

गोपाल मंडल अपने क्षेत्र में मजबूत जातीय और व्यक्तिगत आधार रखते हैं। अगर वे निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतरते हैं, तो एनडीए का वोट बैंक दो हिस्सों में बंट सकता है।

महागठबंधन के लिए यह स्थिति ‘बिना मेहनत की बढ़त’ साबित हो सकती है।

बागी फैक्टर: एनडीए के लिए ‘अंदरूनी विस्फोट’

 तीनों सीटों का विश्लेषण बताता है कि भागलपुर ज़िले में एनडीए को बाहरी नहीं, अंदरूनी खतरा ज़्यादा है। बागियों के मैदान में उतरने से न केवल वोट विभाजित होंगे, बल्कि एनडीए की एकजुटता पर भी गहरा असर पड़ेगा।

भागलपुर

अर्जित शाश्वत, प्रशांत विक्रम: भाजपा वोट बैंक विभाजित

कहलगांव

पवन यादव: सीट ट्रांसफर पर असंतोष

गोपालपुर

गोपाल मंडल: जदयू को भारी नुकसान संभव

संगठनात्मक चुनौती: एकता या विघटन

भाजपा और जदयू, दोनों के सामने “कैंडिडेट से ज्यादा एकजुटता” सबसे बड़ी परीक्षा है। वरिष्ठ नेताओं सैयद शाहनवाज हुसैन और अश्विनी चौबे की अपील के बावजूद ज़मीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं के बीच विभाजन साफ़ दिख रहा है।

रणनीतिक विकल्प:

समझौते का फार्मूला: शीर्ष नेतृत्व अगर बागियों को मनाने में सफल होता है, तो नुकसान रोका जा सकता है।

कठोर अनुशासन नीति: अगर समझौता न हो, तो संगठन को कठोर अनुशासन का संदेश देना पड़ेगा।

संयुक्त प्रचार अभियान: घोषित प्रत्याशी को लेकर ज़मीन पर आक्रामक प्रचार रणनीति जरूरी है, वरना “असंतोष की आंच” पूरी सीट को जला सकती है।

निष्कर्ष: बागियों से बड़ी चुनौती कोई नहीं

भागलपुर की राजनीति यह साफ़ संदेश दे रही है —“अगर घर में आग लगी हो, तो बाहर के दुश्मन की ज़रूरत नहीं होती।” एनडीए के लिए यह चुनाव केवल सीटों की लड़ाई नहीं, बल्कि संगठनात्मक नियंत्रण और नेतृत्व की विश्वसनीयता की परीक्षा है।

अगर बागी नेताओं को समय रहते साधा नहीं गया, तो भागलपुर, कहलगांव और गोपालपुर तीनों सीटें ‘सेफ ज़ोन’ से ‘रिस्क ज़ोन’ में बदल जाएंगी। और अगर ऐसा हुआ, तो यह न केवल ज़िले बल्कि पूरे अंग क्षेत्र की राजनीतिक दिशा तय कर सकता है।