स्मृति शेष : जब डिगरिया जंगल में गुरुजी ने ली पनाह, खोजती रह गई थी पुलिस

  • सबसे करीबी और महाजनी प्रथा के खिलाफ आंदोलन में सहयोगी रहे श्यामलाल सोरेन से जानिए दिशोम गुरू शिबू सोरेन के आंदोलन के दिनों की कहानी
  • गुरूजी के महाजनी प्रथा के खिलाफ चलाए गए आंदोलन का गवाह है जसीडीह का कोकरीबांक गांव

न्यूज स्कैन ब्यूरो, देवघर

दिशोम गुरू शिबू सोरेन का देवघर से गहरा जुड़ाव था। 1970 के दशक में जब शिबू सोरेन ने महाजनी प्रथा के खिलाफ आंदोलन शुरू किया तो देवघर उस आंदोलन का गवाह था। क्योंकि जसीडीह के कोकरीबांक गांव में गुरूजी पुलिस से बचने के लिए शरण लेते थे। गांव के श्यामलाल सोरेन देवघर में गुरूजी के सबसे करीबी माने जाते हैं। 70 के दशक में जब गुरुजी ने महाजनी प्रथा के खिलाफ आंदोलन किया था तो श्यामलाल उसमें शामिल थे। आंदोलन के दौरान पुलिस के बचने के लिए कई दफा गुरूजी जसीडीह के कोकरीबांक गांव में आकर श्यामलाल के घर छिपते थे। गुरूजी की निधन से श्यामलाल दुःखी हैं। पत्रकारों की टीम जब सोमवार सुबह में श्यामलाल के घर पहुंची और उन्हें यह सूचना दिया तो गुरूजी नहीं रहे तो वे भावुक हो गए। कहने लगे कि झारखंड का माय-बाप चला गया। गुरूजी के साथ बिताए पलों को याद कर श्यामलाल की आंखें भर आईं।

श्यामलाल ने कहा कि आंदोलनों के दौरान गुरूजी जब मेरे घर आकर छिपते थे तो एक बार पुलिस को इसकी भनक लग गई। पुलिस मेरे घर पहुंची, लेकिन उससे पहले गुरूजी डिगरिया पहाड़ के जंगल में जाकर छिप गए थे। कई दिनों तक जंगल में रहे और वहीं हमलोग उन्हें रसद-पानी पहुंचाते थे। डिगरिया जंगल से ही गुरूजी आंदोलन का संचालन करते थे। पत्रकारों ने जब श्यामलाल से पूछा कि क्या उनके पास गुरूजी के साथ की कोई तस्वीर हैं? इस पर श्यामलाल ने कहा कि गुरूजी तो हमारे दिल में बसे है, फिर तस्वीर की क्या जरूरत है। तस्वीर और कई कागजात, चिट्ठी सब था, लेकिन दीपक खा गया।

साग-रोटी गुरूजी का पसंदीदा भोजन था

उन्होंने बताया कि गुरूजी अक्सर बोकारो से मोटरसाइकिल और जीप से कोकरीबांक आते थे। गांव प्रवेश से पहले नदी थी, जिसमें पुल नहीं था। उस नदी को मोटरसाइकिल और जीप से गुरूजी पार कर देते थे। रात में गुरूजी को खाने में साग और रोटी काफी पसंद था। अक्सर वे जंगल से लाए गए साग और बनवाते थे और हमलोगों के साथ घर के सदस्य की तरह खाते थे।

कभी शिबू सोरेन का नाम नहीं लिया

श्यामलाल ने बताया कि उनके घर की दीवार, चौखट सब गुरूजी की मौजूदगी की गवाह है। अब तक कभी शिबू सोरेन का हमलोगों ने नाम नहीं लिया। सब दिन उन्हें गुरूजी कहते थे। यह उनके प्रति एक सम्मान था। आदिवासियों के हक-हकूक को लेकर जिस तरह उन्होंने आंदोलन चलाया और उसे मुकाम तक पहुंचाया, वह काम कोई योद्धा ही कर सकता है।