- बिहुला-विषही पूजा आज से, पढ़िए विशेष रिपोर्ट
डॉ. अमरेन्द्र, भागलपुर
( सभी पेंटिंग मंजूषा गुरु मनोज पंडित, सुमना, पवन कुमार सागर और अमन सागर की है।)
सुनीता विलियम आखिर कई सप्ताहों तक अन्तरिक्ष और चाँद पर रहकर पृथ्वी पर लौट आई, अपने अन्तरिक्ष साथियों के साथ, कभी बिहुला भी अपने मृत पति को लेकर अंग के सीमांत प्रदेश तक पहुँच गई थी, स्वर्ग तक, तो बिहुला चंपा लौटी थी अपने लक्ष्य में पूरी तरह सफल होकर चंपा की धरती पर, अपने पति–भैसुरों का पुनर्जीवन प्राप्त कर, पुनर्जीवित पति के साथ।
मिथशास्त्रियों के लिए यह पौराणिक घटना एक धर्मकथा हो सकती है, जो है नहीं। यह अलग बात है कि बिहुला–विषहरी कथा का ‘स्वर्ग’ पृथ्वी पर कोई दुर्गम स्थान ही रहा हो, लेकिन कथा के पात्र देश–काल को ‘नहीं–नहीं’ की अविश्वासी रट से झुठलाया नहीं जा सकता। फिलवक्त, यहाँ इससे भी कोई मतलब नहीं है।
आप इसे लोककथा ही मानकर चलें, लेकिन कल्पना कीजिए, अन्तरिक्ष में प्रवेश कर रही कहाँ एक अतिसुरक्षित यान में जा रही सुनीता और कहाँ आषाढ़–सावन की उफनती गंगा में काठ की मंजूषा में अकेली बैठी बिहुला। एक के साथ सहयोग के लिए कई पुरुष साथी हैं, दूसरे के साथ उसका ही मृत पति, उसके समक्ष पड़ा हुआ। लेकिन विपरीत परिस्थितियों के बावजूद बिहुला चूर नहीं।

कभी आपने सोचा है कि जिस नवेली दुल्हन का पति विवाह की रात ही सर्पदंश से मृत सिद्ध हो जाय, वह कुछ देर के लिए भले ही संज्ञाशून्य–सी दिखी होगी लेकिन तभी पति के पुनर्जीवन के लिए संकल्पबद्ध हो, पति के शव को लेकर यात्रा पर निकल पड़े, क्या यह कोई सामान्य बात है ? सावित्री ने भी अपने पति का पुनर्जीवन प्राप्त किया था, लेकिन बिहुला की तरह सावित्री को उन कठिनाइयाँ–विपत्तियाँ को नहीं सहना पड़ा था । उसे तो यम के पीछे–पीछे चलते जाने के साहस से और यमराज के वरदान देने में भूल के कारण ही अपने पति का पुनर्जीवन मिल गया था।
विपत्तियों ने बिहुला को कमजोर नहीं और भी साहसपूर्ण बना
सांसारिक, प्राकृतिक, दैविक विपत्तियों ने बिहुला को कमजोर नहीं, बल्कि सबने मिलकर इसे और भी साहसपूर्ण बना दिया था, सब कुछ सह जाने की क्षमताओं से भर गई थी, सती बिहुला । बहुत आगे की यात्रा की बात नहीं करता हूँ, बिहुला मंजूषा में मृत पति को लिए राजमहल की उस विशाल गंगा तक तो गई ही होगी, जहाँ कोशी आकर गंगा को समुद्र–सी बना देती है ।

कथा के अनुसार बिहुला इन्द्रलोक तक पहुँची थी और पुराण कथा के अनुसार राजमहल के इन्द्राणी तीर्थस्थल के पास ही शची ने घोर तपस्या कर के इन्द्र को प्राप्त किया था। इन्द्राणी तीर्थ पर बिहुला की मंजूषा अवश्य ही रुकी होगी, शची और इन्द्र की उपासना के लिए। लेकिन जो कहना है, वह यह कि समुद्र–सी फैली गंगा मे अकेली बिहुला कैसे उस मंजूषा में निर्भय बहती गई होगी, अपने लक्ष्य को किसी भी तरह हासिल कर लेने के संकल्प से अडिग भरी-पूरी। सोचते ही हिल जाता है, हृदय।
आज का स्त्री विमर्श बिहुला के समक्ष बौना साथ लगता है
स्त्री विमर्शवादी नारी मुक्ति को लेकर आज कितनी–कितनी बातें करते हैं । अगर हम अंगिका लोकगाथा की नायिका बिहुला के चरित्र पर गंभीरतापूर्वक विचार करें, तो लगेगा कि आज का स्त्री विमर्श बिहुला के समक्ष कितना बौना है। ई– पू– छठी या सातवीं सदी में बिहुला की जिद के सामने शैव चन्द्रधर सौदागर को भी अपना हठ छोड़ देना पड़ा था, नहीं तो उसने अपने सातवें पुत्र बाला के मृत शरीर को नदी में फेंक देने का आदेश दे ही दिया था। मंत्री धन्ना भी आदेश–पालन के लिए उद्धत था ही। बिहुला के विरोध और दृढ़ता के सामने दोनों को झुकना पड़ गया।

तत्कालीन पुरुष प्रधान समाज में यह कोई साघारण बात थी क्या ? उस समय में, जब किसी दैवी–ताप को भी स्त्री के भाग्य के साथ जोड़ दिया जाता था। तभी तो बेटे की मृत्यु पर सोनिका साहुनी यही कहती है,
होरे बाबाखौकी भैया रे खौकी बासू केरो धीया गे
होरे बारह बरस केरोॅ बाला लखीन्दर माया
होरे, पाँचो केॅ मारले रे दैवा वासू केरी धीया रे
इतना ही नही, वह दो चार लात भी बिहुला पर जमा देती है, यह कहती -होरे दुई चारी लात गे सोनिका कन्या केॅ मारल माया…इससे पता चलता है कि बिहुला की शादी बहुत कम में ही हुई थी, जब बाला लखिन्दर ही बारह बरस का था, तो बिहुला उससे भी कम की होगी और इस उम्र में सास का ताना तो बर्दाश्त कर जाती है, लेकिन ससुर के आदेश के विरुद्ध वह उठ खड़ी हो जाती है। बिहुला का यह चरित्र अंग की बहुत–सी विदूषी नारियों से बिल्कुल भिन्न है। अति असामान्य है और इसी अति असामान्यता के कारण ही जब मार्ग में बाला का शव गलने लगता है, जिसे ढोना मुश्किल होता है, तब वह गिरमल हार की तरह मृत पति की हड्डियों को गर्दन में डाल लेती है।
मध्यप्रदेश में नहीं, उजानी और चम्पा 3 कोस के भीतर के दो गांव
कुछ विद्वान, कुछ ज्यादा ही जानने के अतिरेक में, बिहुला का नैहर उजानी को उज्जैन के भूगोल से साट देते हैं, जबकि यह उजानी भागलपुर की गंगा के पार की उजानी ही है, बिहुला अपने मृत पति को लिए गंगा के जिन घाटों -सेमापुर, कागासैनी, बोचासैनी, गोदासैनी, जोंकासैनी, जुआरीघाट को पार कर शंखेसर घाट पहुँचती है, उजानी तो इन घाटों से बहुत पहले सेमापुर घाट के आस–पास है। लोकविश्वास भी यही है, साक्ष्य भी है । गाथा में इसका उल्लेख मिलता है कि चाँदो सौदागर जब बिहुला को देखने गये, तो तीन कोस के बाद ही उजानी पहुँच गये। यह लोकगाथा की कथा–पद्धति भर नहीं है, यह चम्पा से उजानी की दूरी का भूगोल है। अपने पति और भैसुरों को पुनर्जीवन दिला कर बिहुला उन्हीं घाटों से होकर लौटती है और सेमापुर घाट पर आकर अपनी नाव को रोक देती है, फिर वहीं से श्मशान पति के यहाँ पहुँच कर उससे बाँस खरीदना, अपने पति, भैसुरों से सुपती, मौनी आदि बनवाना और उन्हीं सूप, सुपती, मौनी को लेकर नैहर बेचने जाना, इस बात के सबूत हैं कि उजानी सेमापुर नवगछिया के आस–पास का गाँव है, जहाँ से बिहुला अपनी सास के सत को कायम रखने के लिए डोमिन बन कर गई।

जाहिर हो कि इसी उजानी से निकल कर वह चम्पानगर अपनी ससुराल भी जाती है । वह घटना इतना बताने के लिए काफी है कि उजानी और चम्पा तीन कोस के भीतर के दो गाँव हैं -गंगा के उत्तरी, दक्षिणी छोर पर बसे दो गाँव हैं । उजानी को मध्यप्रदेश का उज्जैन बताना भ्रमित बुद्धि के सिवा कुछ भी नहीं।
बिहुला के विवेक, सहनशीलता और धैर्य के कारण ही चांदो की हठधर्मिता खंडित होती है
लेकिन बात यहाँ बिहुला के मायके की नहीं है और न घाटों का विवरण उपस्थित करना है। बात तो यहाँ बिहुला के उस व्यक्तित्व की है, जिसने अपने समय से बहुत आगे का मिजाज बहुत पहले ही पाया था और इसी कारण एक हद तक पर्दा का त्याग कर अपने ससुर से लखेन्द्र के शव को मसानपति के हाथों सौंपने का विरोध करती है। आज यह बात अति सामान्य लग सकती है, लेकिन ई– पू– छठी–सातवीं शताब्दी के संदर्भ में यही बात कितनी असामान्य थी, जहाँ ससुर, भैंसुर के समक्ष बहुओं का मुँह खोलना तो क्या, सामने आना भी समस्त सामाजिक मर्यादा और नैतिकता का उल्लंघन था। विरोध करने की बात तो एकदम अलग थी ।

बिहुला अपने पति के शव को लेकर मंजूषा में बैठती है और घाट छोड़ने से पहले सास उससे जो–जो कहती है, वह उसे पूरा करती है, यानी पहले वह अपने छवो भैसुरों को जीवन दिलाती है, नाविकों को भी, डूबी नावों को उबारती है और फिर पति को जीवन दिलाती है। कठोर संघर्ष और विपत्ति के काल में वह कुछ भी नहीं भूलती है।
वह नाव के मस्तूल से गंगा में कूदकर अपने पति और भैसुरों की शंकाओं को दूर करती है कि वह अपवित्र नहीं है, यही कारण है, वह शंकाग्रस्त भैसुरों सहित पति के अत्याचार को सहन भी कर लेती है और इस तरह अपने विवेक से दिग्भ्रमित पति–भैसुरों को सतपथ पर लाती है। बिहुला के इसी विवेक, सहनशीलता और धैर्य के कारण ही चाँदो की हठधर्मिता खंडित हो जाती है, पुनर्जीवित हुए भैसुरों से बिहुला का सम्भाषण, बिहुला में इक्कीसवीं सदी का खुला रूप है।
प्रण की रक्षा के लिए बिहुला कठोर कदम उठाने से भी नहीं हिचकती
बिहुला अपनी इच्छानुसार चम्पानगर से पहले सेमापुर घाट पर ही विषहरी को पूजा दिलवाती है । अपने ससुर के निवेदन को ठुकरा देती है कि वह पुन : ससुराल आ बसे और वह भी कितनी दृढ़ता के साथ। औरत होने के नाते वह विचलित भी होती है, उसके आँसू भी छलछलाते हैं, लेकिन प्रण की रक्षा के लिए वह कठोर कदम उठाने से भी नहीं हिचकती।

यही कारण है कि वह जब अपने पति और भैसुरों के साथ चम्पा के करीब सेमापुर घाट पहुँचती है और अपने ससुर चाँदो से विषहरी को पूजा देने के लिए कहती है, तब चाँदो द्वारा पूजा देने की जगह गुस्से में आकर सातो बेटों को ही गंगा में डुबा देने की बात पर उत्तेजित बिहुला विषहरी से ससुर को दंडित करने की बात कहती है। भयंकर बारिश और ओले पड़ते हैं, ओले की मार से चाँदो तिलमिला उठते हैं।
अंत में सब कुछ समझती हुई बिहुला सारे भ्रमों को तोड़ देती है
बिहुला को कोई भी अविवेकी कार्य इसलिए सहनीय नहीं है कि वह उसके सगे संबंधी द्वारा किया गया है । विशेष कर बिहुला का व्यक्तित्व तो वहाँ और भी अत्याधुनिक हो उठता है, जब वह डोमिन बनी अपनी ससुराल चम्पा का कंचनगढ़ पहुँचती है। वह दिन लखेन्द्र की बरखी का दिन था। बिहुला बरखी में बचे हाँड़ी भर दाल–भात को लिए, जो उसे वहाँ से मिला था, पति और भैसुर के पास ले आती है और न केवल पति–भैसुर को वही दाल–भात खिलाती है, स्वयं भी खाती है।

बिहुला का यह सब कार्य मात्र क्या सास सोनिका सहुआइन के कथन को सत करने के लिए था ? शायद नहीं । जीवन में जितने कटु अनुभवों को उसे झेलना पड़ा था, वहाँ उसके लिए समाज की सभी कुलीन मर्यादाएँ व्यर्थ हो गई थीं। बिहुला जिस परिवार से आती थी, वहाँ भी वह मर्यादाएँ थीं, इसी से यह तथाकथित कुलीनता समय–समय पर उसका पीछा भी करती हैं, लेकिन अंत में सब कुछ समझती हुई वह सारे भ्रमों को तोड़ देती है। इस भ्रम को भी कि यह पृथ्वीलोक (घर–द्वार की बंदिशें) सही व्यक्ति के लायक हैं। यही कारण है कि सास–ससुर के सारे आग्रहों को ठुकरा कर वह पृथ्वी पर बसने से इनकार कर देती है।
बिहुला के जीवन से सीख: संकल्प और साहस से हर बाधा को पार किया जा सकता है
आखिर क्यों नहीं इनकार करती। बिहुला जब अपने पति के शव को लेकर एक महान संकल्प को लिए गंगा पर डोलती मंजूषावाली नाव पर बैठी थी, तब सास ने अच्छे वचन की जगह यही तो कहा था, मैं जानती हूँ कि लखेन्द्र के शव को थोड़ी दूर ले जाने के बाद ही तुम उसे गंगा में फेंक दोगी और स्वयं किसी डोम के घर जा बैठोगी और सौदागर चाँदो की उपेक्षाओं–निष्ठुरता की तो कोई सीमा ही नहीं थी। चाँदो तो घाट तक भी नहीं आये, बिहुला को उसके संकल्प में सफलता का आशीर्वाद देने। यह वह दृश्य नहीं था जब गंगा के मार्ग से धंर्म– प्रचार के लिए ताम्रलिपि होते हुए लंका जा रही संघमित्रा ने गंगा के रानी घाट में आकण्ठ डूबे पिता सम्राट अशोक के हाथों से, मंत्रोच्चार के बीच, बोधिवृक्ष ग्रहण किया था और घाट पर खड़े सभी व्याकुल नर–नारियों ने अपने आँसुओं को पोछते हुए ‘ धर्म की विजय हो’ कह कर संघमित्रा को विदा किया था। बिहुला तो सास–ससुर से ही उपेक्षित होकर गंगा पर प्रवाहित मंजूषा पर बह चली थी और संकल्प की सिद्धि के साथ लौटी थी, तो आशंकाओं, उपेक्षाओं का पहाड़ उसके सामने खड़ा था । तब भी अंग की बेटी बिहुला विचलित कहाँ हुई।
लोकगाथा बिहुला-विषहरी पर आधारित कुछ मंजूषा पेंटिंग














