सावन में अंगप्रदेश: जहां हर कण में गूंजती है शिवलिंग पूजन की अनादि गाथा

  • अंगप्रदेश में शिवलिंग पूजन की परंपरा: इतिहास, आस्था और लोकविश्वास की पवित्र भूमि
  • डॉ. अमरेन्द्र

अंगप्रदेश की धरती शिव उपासना की सबसे प्राचीन और सशक्त प्रतीकों में से एक रही है। यह वह भू-भाग है जहाँ शिव न केवल आराध्य हैं, बल्कि लोकचेतना में रचे-बसे हैं। वर्षों तक यह मान्यता बनी रही कि भारत में ईसा से पूर्व कोई परिष्कृत कला उपलब्ध नहीं थी, लेकिन सिंधु घाटी की खुदाई ने इन दावों को ध्वस्त कर दिया। वहाँ से प्राप्त शिव की प्रतिमा- ध्यानस्थ मुद्रा में, मस्तक पर सींग, सिंहासन पर विराजमान और शिवलिंग, यह प्रमाणित करते हैं कि शिव-पूजा भारतीय सभ्यता की आत्मा रही है।

हड़प्पा नहीं, मड़प्पा है आदि स्रोत?

जानकारों का मत है कि हड़प्पा से भी प्राचीन सभ्यता भारत में रही, जो अंगप्रदेश के दक्षिणी हिस्से में विकसित हुई, जिसे उन्होंने ‘मड़प्पा सभ्यता’ कहा है। इस क्षेत्र में शिवलिंग की पूजा आरंभिक रूप में ‘कलाविहीन’, मगर अत्यंत गहन लोकश्रद्धा से जुड़ी हुई थी।

शिव का जन्मडीह: राढ़ प्रदेश यानी अंग का ही अंचल

इतिहासकार प्रभात रंजन सरकार के अनुसार, महाप्रलयों के बाद जब मानव सभ्यता फिर से पनपी, तो राढ़ प्रदेश (वर्तमान बिहार-झारखंड का दक्षिणी हिस्सा) में ही शिव ‘आदिदेव’ के रूप में प्रकट हुए। आर. डी. बनर्जी जैसे इतिहासकारों ने लिखा है कि शिव पूजा की शुरुआत आर्यों से नहीं, अनार्यों से हुई और अंगप्रदेश अनार्य परंपरा का गढ़ रहा है।

आज भी दुमका ज़िले के सरैया प्रखंड में शुभेश्वर नाथ शिवलिंग के बारे में लोकविश्वास है कि उसे असुरराज शुभ ने स्थापित किया था।

मंदार पर्वत: शिवलिंग का जीवंत प्रतीक

मंदार पर्वत, जिसकी ऊँचाई लगभग 700 फीट है और जो लगभग चार मील में फैला हुआ है , शिवलिंग पूजन की परंपरा का प्रकृति-प्रेरित केंद्र रहा है। पद्मपुराण में इसका उल्लेख है कि यह क्षेत्र असुरों का प्रमुख गढ़ था और यहीं असुरराज मधु एवं अंधकासुर के वध की कथा जुड़ी है।

इतिहासकार का मानना है कि पर्वत के त्रिकोणीय आकार से शिव के लिंगरूप की कल्पना प्रेरित हुई, एक योगी की प्राणायाम मुद्रा में स्थित आकृति, जो भक्तों के लिए ‘शिव’ बन गई।

दर्शन और कथा के बीच लिंगरूप

काशी के राजा दिवोदास और शिव द्वारा ‘गुप्त रूप’ में अविमुक्तेश्वर लिंग की स्थापना की कथा, तथा ब्रह्मा-विष्णु द्वारा शिवलिंग को स्थिर करने की कथा, पूजन की पौराणिक भूमि को सिद्ध करती है। दर्शन कहता है कि लिंग मन का प्रतीक है, योनि बुद्धि का। मन को बुद्धि में स्थिर करना ही लिंग पूजा का मर्म है।

परंतु विशेषज्ञ यह भी स्पष्ट करते हैं कि प्रारंभिक लिंग पूजा इतनी दार्शनिक नहीं थी, यह पर्वत जैसे प्रतीकों और लोक प्रेरणाओं से उपजी थी।

मलूटी की गुप्तकाशी और कहलगाँव की लोकगाथा

अंगप्रदेश के देवस्थलों की बात करें, तो झारखंड का मलूटी गाँव, जिसमें एक ही परिसर में 108 शिव मंदिर मौजूद हैं, इसे गुप्तकाशी कहा जाता है। कहा जाता है कि शिव ने गुप्त रूप से यहीं लिंग की स्थापना की थी। कहलगाँव भी एक समय ‘काशी’ कहलाता था। ये सभी स्थल इस बात के प्रमाण हैं कि अंगप्रदेश शिवलिंग उपासना की अक्षय परंपरा का केंद्र रहा है।

शिव के साथ व्यापार और संस्कृति का प्रवाह

प्रतीकशास्त्र के जानकार पीटरसन और कटनर स्वीकार करते हैं कि मिस्र के देवता ओसिरिस और देवी आइसिस, भारत के शिव और पार्वती के ही रूप हैं। चंपा (भागलपुर) में खुदाई में मिली दुर्गा की प्रतिमा और मिस्र की एक देवी की आकृति में समानता से यह स्पष्ट है कि अंग की संस्कृति और कला वाणिज्यिक मार्गों से विदेशी सभ्यताओं तक पहुँची।

विक्रमशिला से आनन्द मार्ग तक: शेव-मार्ग की सतत धारा

विक्रमशिला जैसे बौद्ध केंद्र में महायान से तंत्रयान और वहाँ से नाथपंथ का जन्म हुआ, जो मूलतः शिव साधना पर आधारित था। आधुनिक युग में भी आनन्द मार्ग का जन्म इसी अंगप्रदेश की भूमि पर हुआ, एक बार फिर यह शिव-संस्कृति की सतत यात्रा का प्रमाण है।

एकेश्वरवाद की लोक-चेतना

अंगप्रदेश में भले ही जातियाँ, देवी-देवताओं को लेकर भिन्न-भिन्न लोकमान्यताओं को मानें, लेकिन शिवलिंग पूजन में सभी एक साथ एकत्र होते हैं, यह एक अनूठी एकता है। सावन के महीने में उमड़ने वाली विशाल शिवभक्तों की भीड़ इस सामूहिक आस्था का प्रमाण है।