भागलपुर के साहित्य सर्जकों का नीला संसार… जहां साहित्य गंगा की तरह बहता है

  • इतिहास की कंकड़ियां और साहित्य की लहरें

-डॉ. अमरेन्द्र

ईसवी २०१० में प्रकाशित इम्पेरियल गजेटियर ऑफ इंडिया में भागलपुर के लिए लिखा हुआ है कि आप भागलपुर के जिस भी भाग में खड़े होते हैं, वहाँ एक इतिहास होता है, उस स्थान के जिस कंकड़ी को उठाते हैं, वह इतिहास की कंकड़ी होती है और आप उसे जहाँ फैंकते हैं, वहाँ भी एक इतिहास छुपा होता है । ऐसे में अगर १८५७ की क्रांति से कई दशक पूर्व भारतीय राष्ट्रवाद की कविता लिखने वाले अंग्रेज कवि हेनरी लुईस विवियन डेरोजिया को भारतीय संस्कृति पर कविता लिखने की प्रेरणा अगर भागलपुर से ही मिली, तो क्या आश्चर्य – जो! कोलकाता से भागलपुर आये थे। यहाँ की मचलती-उफनती गंगा ने डेरोजिया को ऐसा चमत्कृत किया कि द डंडिया भाई मदरलैंड जैसी कविता की कवयित्री हो गई । लेकिन कभी डॉ. विष्णु किशोर झा बेचन ने शीर्षक लिखा था – भागलपुर : एक भागता हुआ शहर।

शहर जो कवियों को गढ़ता है, लेकिन रोक नहीं पाता

 भले ही भागलपुर के हवा-पानी ने कोलकाता से आये शरतचंद, वनफूल, विभूति भूषण बंधोपाध्याय, सुभाष चंद्र घोष के लिए कथा और कविता सृजन लिए प्रेरणा की जमीन तैयार की और लगभग उनकी सम्पूर्ण रचनात्मक प्रतिभा की भूमि भागलपुर ही रहा, लेकिन शायद भूमिपुत्र नहीं होने के कारण एक- एक कर सब कोलकाता की ओर होते गये, पटकथा लेखक तपन सिन्हा तक।

बंगला कथाकार सुरेन्द्र नाथ गंगोपाध्याय, उपेन्द्र नाथ गंगोपाध्याय, दिव्येन्दु पालित की बात और है और बंगला की कथा लेखिका निरुपमा देवी भी भागलपुर में आई, तो भागलपुर की ही होकर रही, नहीं तो बंगला के द्वितीय उत्थान काल के कथाकार, नाटककार निर्झर चट्टोपाध्याल, दीपक सान्याल तक भागलपुर से निकलकर कोलकाता जा बसे। ताप्ती चौधरी का भी कुछ पता नहीं।

विक्रमशिला की वाणी और सिद्ध साहित्य की छाया

 यही नहीं कि आधुनिक भागलपुर के बंगला साहित्यकार ही बंगाल की ओर मुड़े, बल्कि साववीं- आठवी शताब्दी में विक्रमशिला विश्वविद्यालय में पुरानी हिन्दी की नींव रखनेवाले सिद्ध कवि सरहपाद, शबरपा, भुसुक पा, शांतिपा, विनयश्री, लुचिकपा, जयन्तपा, पुतुलिपा, निर्गुणपा, चंप पा, नारोपा, लुईपा, डोम्बि पा, वीणापा, दीपंकर श्रीज्ञान, चर्मटीपा, धम्मपा, मेकोपा में से ऐसे कई सिद्ध कवि थे जो तिब्बत जा बसे थे और वही के होकर रह गये । कम-से-कम दीपंकर श्रीज्ञान और मिलारेपा के गुरु मारपा के बारे में यहीं इतिहास प्रसिद्ध बात है।

इन सिद्ध कवियों के साहित्य का इसलिए भी महत्व है कि इसमें प्राचीन अंगिका का रूप सुरक्षित है, जैसा कि राहुल सांकृत्यायन, डॉ. माहेश्वरी सिंह महेश, डॉ. तेजनारायण कुशवाहा जैसे विद्वानों ने माना है ; महत्व तो इसलिए भी है कि हिन्दी के भक्तिकाल के अधिकतर कवियों ने दोहे और पद में कविता लिखना इन्हीं सिद्ध कवियों से सीखा। कबीर की भाषा और भाव पर इन्ही सिद्ध कवियों का साफ प्रभाव है। 

अंगदेश की लोकगाथाओं में जीवित साहित्य

आश्चर्य की बात नहीं कि ग्यारवीं-बारहवीं सदी में जो सिद्ध साहित्य मिलता है, वह लोकभाषा अंगिका का ही साहित्य है, फिर तेरहवीं सदी से लेकर सत्रहवीं- अठारहवी सदी तक का साहित्य भी। बिहुला, गोपीचंद, नटुआ दयाल, सलेस भगत जैसे गाथा काव्य इसी काल के काव्य साहित्य हैं।

वैसे हिन्दी की खड़ी बोली का इतिहास तो भारतेन्दु काल से ही आरंभ होता है और जब भारतेन्दु भी हिन्दी में कविता नहीं लिख रहे थे तब पुराने भागलपुर के कवि महेश नारायण ने निराला की जूही की कली से भी पहले मुक्त छंद में हिन्दी की पहली लंबी कविता की रचना की थी ।

भागलपुर के गौरवमयी सर्जक

 ऐसा नहीं कि भागलपुर के साहित्यकार ही भागलपुर से निकले, ईसवी १७७३ में भाषा के आधार पर गठित भागलपुर की भूमि भी इससे अलग होती गई, इतनी अलग कि अब अंगिका भाषा के कारण ही वे पहचानी जा सकती हैं, नहीं तो डॉ. लक्ष्मीनारायण सुधांशु, रामधारी सिंह दिनकर, राजकमल चौधरी, डॉ. मधुकर गंगाधर, फणीश्वर नाथ रेणु, अनुपलल मंडल, पं, जगन्नाथ चतुर्वेदी, डॉ श्यामसुंदर घोष, बुद्धिनाथ झा कैरब, पं अवधभूषण मिश्र सब के सब भागलपुर के ही रहे, इनका साहित्य सृजन पुराने- नये भागलपुर से कभी नहीं कटा रहा।

भागलपुर अब वो नहीं रहा

 वैसे आज के घेरे में घिरा भागलपुर ही वह भागलपुर कहाँ रहा, जो जनार्दन प्रसाद झा द्विज, प्रो. कृष्ण किंकर सिंह, डॉ. माहेश्वरी सिंह महेश, डॉ. नन्दकिशोर, पं. रामेश्वर झा द्विजेन्द्र, डॉ. गौरीशंकर मिश्र हिजेन्द्र, पं. रामसेवक चतुर्वेदी, मधुसूदन साह, आनंद शंकर माधवन, दामोदर शास्त्री, श्रीउमेश, मधुर कमल, रविन्द्र नाथ रवि, अशअर उरैनवी का भागलपुर था और न डॉ. शिवबालक राय, डॉ. शिवनंदन प्रसाद, डॉ. राधाकृष्ण सहाय, डॉ. कामेश्वर शर्मा, प्रो. मनमोहन मिश्र, डॉ. विजेन्द्र नारायण सिंह का ही वह भागलपुर, जब अपने काव्य और आलोचना साहित्य को लेकर यह महानगर पूरे उत्तर भारत तक फैला हुआ था।

काव्य से इतर नाटक, कथा और आलोचना में भी योगदान

 ऊपर के अनेक साहित्यकार सिर्फ काव्य सृजन तक ही सीमित नहीं थे, नाटक और कथासाहित्य से भी उतने ही करीब रहे, जिस तरह सुधाकर, कांता सुधाकर, अंजनी कुमार विशाल, शिव कुमार शिव, सदाशिव सुगंध, पी. एन. जायसवाल।

कहने के लिए तो आज भी भागलपुर के पास डॉ. देवेन सिंह, श्रीकेशव, राजेश कुमार, डॉ. मृदुला शुक्ला, रंजन, डॉ. मीरा झा, रामकिशोर, डॉ. सुजाता, अनिरुद्ध प्रसाद विमल, डॉ. विद्या रानी, डॉ. योगेन्द्र, धर्मेन्द्र कुसुम जैसे कथाकार हैं। लेकिन इनमें से अधिकतर या तो दिल्ली में हैं या फिर मध्य या दक्षिण भारत में, जो शहर में हैं, उनकी भी अब वैसी हाँक सुनाई नहीं पड़ती। नाटककार वीरेन्द्र नारायण ने तो दशकों पहले शहर छोड़ दिया था, अब कहने के लिए बस भागलपुर के पास प्रभाष चंद्र झा मतवाला हैं । नहीं तो नाटककार हरि कुंज और गौरी शंकर सिन्हा की यादें भर इस नगर के पास हैं ।

स्वर्णिम समय में भागलपुर से प्रकाशित पत्रिकाएं

एक समय वह भी था जब सिमटे हुए इसी भागलपुर से गंगा ( शिवपूजन सहाय ), बीसवीं सदी ( तारकेश्वर प्रसाद ), शांति ( असर्फी मिश्र ), कौमुदी ( रामेश्वर झा द्विजेन्द्र ), प्राच्य भारती ( आनंद शंकर माधवन ) शताब्दी संवाद (डॉ. बेचन ), चंद्र किरण ( सदानंद सिंह ) इन्दीवर (डॉ. बेचन / रघुनाथ घोष ) सत्यावर्त्त ( अमरेन्द्र ), सप्तम स्वर (राधा कृष्ण सहाय ), आलोक (केदाराम गुप्त / डॉ, तपेश्वरनाथ ), शिल्पी (डॉ देवेन्द्र ), कैक्टस (राही शंकर ), सही सही ( गंगेश गुंजन /यादवेन्द्र / ठाकुर ), मयंक ( श्रीचंद / वेद प्रकाश वाजपेयी ) परिणीता ( पी एन जायसवाल ), नव लेखन (दिवाकर विद्रोही ), नुक्कड़ नाटक (राजेश कुमार )लताड़ (रामावतार राही ), उल्लू ( कुमार भागलपुरी ), बयान (अतिल शंकर झा ),

समय (अनिरुद्ध प्रसाद विमल ), अभिव्यक्ति (शिव कुमार शिव ), सृष्टि (डा, योगेन्द्र ), अंगदीप (पारस कुंज ), अन्ततः (राघवेन्द्र ), समकालीन करेंट ( दिलीप शर्मा ), घूष के पत्ते (रामकिशोर ) शिरीष कथा ( सदाशिव सुगंध /डॉ, अमरेन्द्र ) नया हस्तक्षेप ( डॉ, आभा पूर्वे ) । एकपत्रक पत्रिका और पाक्षिक समाचार पत्रों की ही क्या कमी थी। लोक समाचार, बिहार टाइम्स, बिहार जीवन, डिफेक्टिव, अंग टाइम्स, अग्निवीणा, नया सबेरा, लोकमत, जन प्रहरी, प्रिय प्रभात, आफत, प्रियलोक समाचार, शनिवार संदेश, अंगमेल, अनावरण, अंदेशा, अंगसत्ता जैसे पत्र अगर साहित्य और समाचार को सामने ला रहे थे, तो द्विजेन्द्र गोष्ठी, समीक्षा से लेकर कामायनी की गोष्ठियां भागलपुर के साहित्य की संजीवनी बनी हुई थीं !

साहित्यिक गोष्ठियां अंगिका, हिंदी, उर्दू को जोड़ती थीं

तब हिन्दी, अंगिका और उर्दू के साहित्यकार गोष्ठियों में एक साथ होते थे। आज डॉ. परमानंद पाण्डेय, उचित लाल सिंह, भुवनेश्वर सिंह भुवन, कनक लाल चौधरी कणिक, गुरेश मोहन घोष सरल, डॉ. तेजनारायण कुशवाहा, दिनेश बाबा, मीरा झा ( नवगछिया ),

अहमद हसन दानिश, कौस साहब, शऊर भागलपुरी, डॉ, मनाजिर आशिक हरगानवी, अशअर उरैनवी होते, तो सारी बातें कहते और कहते कि हेनरी लुईस विवियन डेरोजिया ने ही भागलपुर के हवा-पानी के बीच साहित्य सृजन की प्रेरणा नहीं पाई थी, बाल्कि इसी अंगप्रदेश के भागलपुर में बैठकर आचार्य चतुरसेन ने वैशाली की नगरबधू के कई परिच्छेदों को पूरा किया था।