बिहार एनडीए का नंबर गेम : अमित शाह की बिसात पर सुलझा सीट बंटवारे का गणित

न्यूज़ स्कैन ब्यूरो, पटना
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में एनडीए में सीट बंटवाले का समीकरण अंततः सुलझ गया। यह सबसे बड़ी राजनीतिक पहेली थी। बीजेपी और जदयू को 101–101 सीटें, जबकि लोजपा (रामविलास) को 29, और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (सेक्युलर) व राष्ट्रीय लोक मोर्चा को 6–6 सीटें मिली हैं। पहली नजर में यह एक साधारण गठबंधन गणित लगता है, लेकिन इसकी बारीकियों में उतरें तो यह अमित शाह की रणनीतिक चालों का ऐसा नमूना है, जिसने पूरे विवाद को “All is Well” में बदल दिया।

रणनीति के चाणक्य का नंबर गेम
एनडीए में सीटों की खींचतान को लेकर पिछले दो सप्ताह से पटना और दिल्ली, दोनों जगह सियासी ऊहापोह थी। जदयू के भीतर यह असंतोष बढ़ रहा था कि भाजपा 2024 लोकसभा चुनाव के बाद “बड़े भाई” की भूमिका में आ गई है। वहीं, भाजपा का अपना तर्क था कि 2024 में जदयू का स्ट्राइक रेट ज़्यादा रहा, इसलिए विधानसभा में बराबरी उचित है। नतीजा यह हुआ कि अमित शाह ने “संख्याओं की समानता” का ऐसा फार्मूला निकाला, जिससे दोनों दलों के अहंकार को संतुष्टि मिली और कार्यकर्ताओं को मनोवैज्ञानिक राहत भी।

बीजेपी–जदयू दोनों को 101–101 सीटें देना सिर्फ गणित नहीं, बल्कि भावनात्मक संतुलन का संदेश था कि अब कोई “छोटा-बड़ा भाई” नहीं, बल्कि बराबरी का साथी है। शाह का यह कदम उस मनोवैज्ञानिक जंग का जवाब था, जो दोनों दलों के कार्यकर्ताओं के बीच वर्षों से चल रही थी। इस सीट बंटवारे में सबसे अधिक सख्ती छोटे दलों के प्रति दिखाई गई। हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (HAM) और राष्ट्रीय लोक मोर्चा (RLM) को महज़ 6–6 सीटें मिलीं। जीतन राम मांझी 15 सीटों की माँग कर रहे थे, पर अंत में उन्हें आधे से भी कम सीटें मिलीं। इस पर मांझी ने कहा भी कि, “हमें कम आँका गया है, इसका असर ज़रूर दिखेगा।” यानी शाह ने संकेत साफ़ कर दिया, गठबंधन चलेगा बीजेपी की शर्तों पर, भावनाओं पर नहीं।

दूसरी तरफ लोजपा (रामविलास) को 29 सीटें देकर अमित शाह ने चिराग पासवान को मनोवैज्ञानिक जीत दी। लोकसभा चुनाव के दौरान चिराग ने खुद को “मोदी का हनुमान” कहा था, और इस बार भी शाह ने उसी संबंध को जीवित रखा। हालाँकि, लोकसभा के अनुपात में चिराग को 30 के बदले 29 सीटें ही मिलीं, लेकिन सूत्र बताते हैं कि वे संख्या से ज़्यादा अपनी पसंद की सीटें चाहते थे जो उन्हें मिल भी गईं यानी, संख्या नहीं, प्रभाव की राजनीति।

“All is Well” की रणनीति
अमित शाह ने जब प्रेस कॉन्फ़्रेंस में मुस्कुराते हुए कहा, “सब कुछ ठीक है, सब साथ हैं”, तो यह वाक्य सामान्य नहीं था। यह एक मनोवैज्ञानिक घोषणा थी, जो भाजपा–जदयू–लोजपा के बीच छिपे तनाव को सार्वजनिक रूप से दबाने के लिए दी गई। असल में, इस बंटवारे की स्क्रिप्ट दिल्ली में तैयार हुई, लेकिन पटना में इसका मंचन हुआ। दोनों स्तरों पर शाह की निगरानी रही — कौन नाराज़ है, कौन मानने को तैयार नहीं, किसे कितनी रियायत दी जाए।

यह फार्मूला और “लोकसभा बेंचमार्क”
“एक लोकसभा सीट = छह विधानसभा सीट।” इसी गणना के आधार पर HAM और RLM को छह–छह सीटें दी गईं। शाह ने एक तीर से तीन निशाने साधे, बड़े दलों को बराबरी, छोटों को सीमित हिस्सा। साथ ही चिराग को सम्मानजनक स्पेस।

बीजेपी की मनोवैज्ञानिक जीत
2020 विधानसभा चुनाव में भाजपा को 74 और जदयू को 43 सीटें मिली थीं — यानी भाजपा तब भी मजबूत थी, पर “छोटे भाई” की भूमिका निभा रही थी।
इस बार भाजपा ने बराबरी लाकर अपने कार्यकर्ताओं के बीच यह संदेश दिया कि “अब सम्मान भी बराबर और अधिकार भी।”
यह मनोवैज्ञानिक बढ़त भाजपा संगठन के लिए टॉनिक की तरह है, जदयू के पुराने “वरिष्ठता मॉडल” को पहली बार चुनौती मिली है। जदयू कार्यकर्ताओं के लिए राहत की बात यह है कि पार्टी को अब भी “सीएम चेहरा” का दर्जा मिला है। गिरिराज सिंह और अन्य नेताओं ने भी बयान दिया, “मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही रहेंगे।” यह समझौता “राजनीतिक मर्यादा” और “रणनीतिक मजबूरी” दोनों का मिश्रण है।

लोजपा की भूमिका — ‘मोदी के हनुमान’ की वापसी
चिराग पासवान के लिए यह सीट बंटवारा व्यक्तिगत विजय जैसा है। 2020 में एनडीए से अलग होकर लड़ने के बाद उन्होंने खुद को फिर से “मोदी-शाह कैम्प” के भीतर स्थापित किया है।
भले उन्हें अपेक्षित 30 के बदले 29 सीटें मिलीं, लेकिन पार्टी के अंदर इसे बड़ी उपलब्धि माना जा रहा है। लोजपा सूत्रों के अनुसार, “चिराग की प्राथमिकता संख्या नहीं, बल्कि ‘कंट्रोल्ड सीट्स’ थीं। यानी वे सीटें जहां उनके अपने जीतने वाले उम्मीदवार हों।” अब सवाल यह है कि क्या यह ‘हनुमान मॉडल’ 2025 में भाजपा के राम को जिताएगा या नहीं।

राजनीतिक संकेत : बीजेपी की ग्रोथ प्लानिंग
अमित शाह की यह रणनीति केवल सीट बंटवारा नहीं, बल्कि आने वाले वर्षों की राजनीतिक पुनर्संरचना है। वे चाहते हैं कि बिहार में भाजपा स्थायी बहुमत की पार्टी बने — जदयू की परंपरागत पकड़ धीरे-धीरे कमजोर हो और भाजपा अपनी जड़ें हर जातीय समूह तक फैलाए।
इसके लिए उन्होंने चार-स्तरीय फोकस तय किया है :
“महिला–मोदी–मंदिर” एजेंडा को राज्य के हर क्षेत्र में प्रचारित करना।
अति पिछड़ा वर्ग (EBC) और दलित मतदाताओं में “राष्ट्रीय नेतृत्व” की विश्वसनीयता को बढ़ाना।
लोजपा के माध्यम से दलित मतदाताओं को एनडीए के भीतर स्थायी रखना।
सीएम पद को फिलहाल न छेड़कर स्थिरता का संदेश देना।

अंदरूनी असंतोष और आने वाली चुनौतियाँ
हालाँकि इस समझौते से ऊपर से सब कुछ शांत दिख रहा है, लेकिन भीतर हलचल अभी भी है। जीतन राम मांझी खुलकर नाराज़ हैं और इसे “अपमानजनक” करार दे चुके हैं। रालोमो की भी शिकायत है कि उन्हें “सिर्फ प्रतीकात्मक सीटें” मिली हैं। जदयू के कुछ वरिष्ठ नेता इस बराबरी वाले फार्मूले से खुश नहीं हैं; उन्हें लगता है कि भाजपा धीरे-धीरे “पार्टी की आत्मा पर कब्जा” कर रही है। विपक्ष (राजद) इसे भाजपा की “नियंत्रण राजनीति” बता रहा है — यानी अमित शाह ने “समानता के नाम पर सत्ता केंद्रित” कर ली है।

यह स है कि अमित शाह ने सीट-बंटवारे को मनोवैज्ञानिक, गणितीय और सामरिक तीनों स्तरों पर साधा। बीजेपी अब “समानता” के साथ “नियंत्रण” भी हासिल कर रही है। जदयू राहत में है, पर मन ही मन सतर्क भी। लोजपा (रामविलास) सबसे ज़्यादा प्रसन्न — “मोदी के हनुमान” मॉडल सफल दिख रहा है। छोटे दलों में असंतोष है, जो भविष्य में दरार बन सकता है। महागठबंधन इसे “भ्रम की एकता” बता रहा है।