तेजस्वी बनाम नीतीश से आगे बढ़ी बिहार की लड़ाई…. चिराग के मिजाज और प्रशांत के अंदाज ने राजनीतिक विकल्प पर सोचने की जमीन तो तैयार कर ही दी है
न्यूज स्कैन ब्यूरो, पटना
बिहार की राजनीति एक बार फिर निर्णायक मोड़ पर खड़ी है। 2025 का विधानसभा चुनाव महज सत्ता परिवर्तन की लड़ाई नहीं, बल्कि नए नेतृत्व और नई राजनीतिक धुरी की तलाश का अखाड़ा बनता जा रहा है। यही कारण है कि चिराग पासवान, उपेंद्र कुशवाहा, और प्रशांत किशोर जैसे नेता अपनी-अपनी शैली में इस परिवर्तन की पटकथा लिखने की कोशिश में जुटे हैं।
चिराग पासवान: विरासत से आगे बिहारी नेतृत्व की चाह
लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के नेता चिराग पासवान ने हाल के दिनों में अपनी राजनीतिक शैली और अंदाज में बदलाव किया है। अब वे महज दलित या पिछड़े समुदाय के नेता नहीं, बल्कि “बिहारी फर्स्ट” के विजन के साथ समूचे बिहार के नेतृत्व की भूमिका में खुद को प्रस्तुत कर रहे हैं। रविवार को मुंगेर के ऐतिहासिक पोलो मैदान में आयोजित ‘नव संकल्प महासभा’ में उन्होंने साफ संकेत दिया कि वे रामविलास पासवान की विरासत से आगे बढ़कर अब एक वैकल्पिक शक्ति के रूप में खुद को स्थापित करना चाहते हैं। यह आयोजन जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह के गढ़ में थी इस वजह से खास थी। ललन सिंह, जो खुद भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बाद जदयू की दूसरी सबसे ताकतवर राजनीतिक धुरी माने जाते हैं, उनके क्षेत्र में चिराग की यह आक्रामक उपस्थिति एक सधा हुआ सियासी संदेश है। चिराग ने हाल में गठबंधन में रहते हुए भी सरकार की कानून-व्यवस्था पर लगातार सवाल उठाए हैं। बढ़ते अपराध खासकर महिला सुरक्षा और प्रशासनिक निष्क्रियता को लेकर वे हमलावर रहे हैं। वे राहुल गांधी और तेजस्वी यादव पर भी तीखे कटाक्ष करते हैं लेकिन नाम नहीं ले रहे। यह उनकी राजनीतिक परिपक्वता का संकेत है।
राजद और जदयू: नेतृत्व की चुनौती
सच है कि पहली बार राजद और जदयू असहज है। राजद के लिए तेजस्वी यादव का चेहरा अगला चुनावी इंजन माना जा रहा है, लेकिन पार्टी के अंदरखाने में और सहयोगी दलों के बीच यह सवाल गूंज रहा है- क्या तेजस्वी की अपील केवल युवाओं के एक वर्ग और यादव-मुस्लिम समीकरण तक तो सीमित नहीं रह गई है? क्या इससे समूचे बिहार को साधा जा सकता है? दूसरी ओर, जदयू को भी यह समझना होगा कि नीतीश कुमार की ब्रांड वैल्यू अब पहले जैसी नहीं रही। बार-बार पाला बदलने को लेकर जनता में उनकी छवि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण लगातार गिरता उनका स्वास्थ्य है। ललन सिंह जैसे वरिष्ठ नेता संतुलन बनाए रखने की कोशिश तो कर रहे हैं, लेकिन क्या वे जदयू को एकजुट रख पाएंगे…यह बड़ा सवाल है।
अपनी खोई जमीन तलाश रहे उपेंद्र
पूर्व केंद्रीय मंत्री और रालोसपा प्रमुख रहे उपेंद्र कुशवाहा फिर से अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने में लगे हैं। उपेंद्र की राजनीति कई मोड़ से गुजरती रही है। वे पिछड़े और अतिपिछड़े वर्गों में पकड़ बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं। अब वे सामाजिक न्याय के साथ-साथ शासन और शिक्षा सुधार जैसे विषयों को भी प्राथमिकता दे रहे हैं। उनकी रैलियों और जनसभाओं में यह स्पष्ट झलक रहा है कि वे वर्ग विशेष में स्थायी विकल्प बनने की कोशिश कर रहे हैं।

आंदोलन से नेतृत्व की ओर प्रशांत किशोर
राजनीतिक रणनीतिकार से नेता बनने की राह पर प्रशांत किशोर ‘जन सुराज’ अभियान के ज़रिए नई राजनीति की ज़मीन तैयार कर रहे हैं। जातीय समीकरणों से हटकर वे शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और प्रशासनिक जवाबदेही जैसे मुद्दों पर बात कर रहे हैं। उनका दावा है कि बिहार को केवल नेतृत्व नहीं, सोच में भी बदलाव की ज़रूरत है। अब तक वे राज्य के हजारों गांवों का दौरा कर चुके हैं और जन संवाद के जरिए एक वैकल्पिक नैरेटिव तैयार कर रहे हैं। हालांकि प्रशांत किशोर का संगठनात्मक ढांचा अभी बहुत मजबूत नहीं है, लेकिन जिस तरह वे सीधे संवाद और मुद्दा-आधारित राजनीति को बढ़ावा दे रहे हैं, उसने उन्हें राजनीतिक विकल्प के रूप में गंभीरता से लिए जाने की जमीन जरूर दी है।
2025 का चुनाव: नीतीश बनाम तेजस्वी या कुछ और?
अब तक यह मान लिया गया था कि बिहार की अगली लड़ाई नीतीश बनाम तेजस्वी होगी। लेकिन अब तस्वीर बदल रही है। चिराग, कुशवाहा और प्रशांत किशोर जैसे चेहरे इस द्वंद्व को त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय बना सकते हैं। यह तय है कि जनता अब केवल जातीय गठबंधनों से आगे बढ़कर कार्य और नीयत को भी देखना चाहती है। बिहार की राजनीति के इस बदले हुए परिदृश्य में नेतृत्व, नीति और नीयत पर नए सवाल खड़े हो रहे हैं। आने वाले कुछ महीने तय करेंगे कि यह बदलाव केवल चेहरे तक सीमित रहता है या सच में बिहार को एक नया राजनीतिक विकल्प मिलता है।