‘हनुमान’ की छवि बरकरार रखते हुए आखिर क्यों हमलावर हैं चिराग?

एनडीए से अलग होकर मैदान में उतरना चिराग के लिए सबसे बड़ा जोखिम हो सकता है। वे बस अपनी पिता की विरासत को आगे बढ़ाना चाहते हैं। ये बस ज्यादा से ज्यादा सीट की सौदेबाजी के लिए प्रेशर पॉलिटिक्स है।

वर्तमान सियासी माहौल में बिहार की राजनीति में चिराग पासवान सबसे दिलचस्प किरदार बनकर उभरे हैं। पिता रामविलास पासवान की राजनीतिक विरासत को वे नए तरीके से साधने में लगे हुए हैं। हाल के दिनों में उनके तेवर और बयानों से एक नई हलचल राजनीतिक क्षेत्र में पैदा हुई है। एनडीए का हिस्सा रहते हुए भी कभी वे पूरे बिहार में मैदान में उतरने की बात कहते हैं तो कभी कानून व्यवस्था को लेकर सख्त सवालों से सूबे की सत्ता को असहज करते रहते हैं। लेकिन चिराग की इस स्क्रिप्ट में कुछ भी नया नहीं है। ये वही पुराने विधानसभा वाली है। कानून-व्यवस्था को लेकर बयान, सभी सीटों पर लड़ने की धमकी और एनडीए में बने रहने की जिद। भाजपा खेमे की खामोशी भी बिल्कुल पहले की तरह ही।
सबसे पहले चिराग पासवान के बहनोई व जमुई से लोजपा(रामविलास) के सांसद अरुण भारती ने जून की शुरूआत में ही एक तरह से इस अध्याय का आगाज कर दिया था। उन्होंने फेसबुक पोस्ट में लिखा- ‘चिराग जी हमेशा कहते हैं कि उनकी राजनीति बिहार केंद्रित है। आत्मनिर्भर बिहार तभी संभव है जब वे बिहार में रहकर नेतृत्व करें।’ आगे अरुण भारती ने कहा, ‘बिहार के लोग चाहते हैं कि चिराग जी बिहार में बड़ी भूमिका निभाएं।’


एक तरह से संकेत अरुण भारती के फेसबुक पोस्ट से ही मिल चुका था। इसके बाद चिराग पासवान ने सार्वजनिक तौर पर बिगुल फूंक दिया कि उनकी पार्टी बिहार में तमाम सीटों पर चुनाव लड़ सकती है। इस बयान से ये बात स्पष्ट तौर पर उजागर हो गई कि एनडीए में सब ठीक नहीं चल रहा है। इस बीच जेडीयू के मंत्री महेश्वर हजारी ने गठबंधन धर्म समझाते हुए चिराग को राजनीतिक मर्यादा बताने की कोशिश की। साथ ही खुला चैलेंज भी दे दिया है कि वे अलग होकर लड़ने को स्वतंत्र हैं। ताजा तल्ख प्रतिक्रिया के मूल में यह है कि चिराग ने बार-बार प्रदेश में कानून-व्यवस्था का मुद्दा उठाया है। यह सरकार पर सवाल तो है ही साथ ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर भी सीधा हमला है।
आइए चिराग की राजनीति के तौर-तरीके को समझते हैं। चिराग एनडीए में रहते हुए भी गठबंधन के बड़े दलों पर पूर्व में भी हमलावर रहे हैं। यह एक तरह से उनकी रणनीति का हिस्सा है। 2020 के विधानसभा मं भी उन्होंने जदयू के खिलाफ तो जमकर उम्मीदवार खड़े किए लेकिन कुछ सीटों के अलावा बांकी पर भाजपा के बिल्कुल साथ रही। नतीजे बताते हैं कि चिराग ने जदयू का गणित तो खराब कर ही दिया। चिराग लगातार खुद को प्रधानमंत्री मोदी का समर्थक बताते हैं। इसी वजह से वे बीजेपी के कोर वोटर्स में भी अपनी प्रासंगिकता बनाए रखते हैं। सच तो यही है कि बेशक चिराग के समर्थक चिराग और बिहार की बात करें लेकिन बिहार में सीटों के लिहाज से उनकी जमीनी पकड़ कमजोर है। यह स्पष्ट है कि आक्रामक बयानबाजी से वे सौदे को अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहे हैं। सच है कि चिराग भी स्वयं को युवाओं और दलित वोटर्स के प्रतिनिधि के रूप में पेश करते हैं। रामविलास पासवान के कद की वजह से एनडीए में आज भी चिराग को महत्वपूर्ण माना जाता है।
राजनीतिक सूत्र बताते हैं कि चिराग जितनी सीटें चाह रहे हैं उतने पर शायद एनडीए में बात नहीं बने। एेसी स्थिति में वे अलग होकर चुनाव लड़ सकते हैं। चिराग ने खुद ही कहा भी है कि पार्टी कुछ मामले में समझौता बिल्कुल नहीं करेगी। लेकिन फैक्ट यह भी है कि अकेले लड़ना चिराग के लिए जोखिम भरा हो सकता है। संसदीय चुनाव से उत्साहित चिराग सीटों पर समझौते के मूड में तो बिल्कुल नहीं नजर आ रहे हैं। सच है कि बिहार में अभी संगठन का कोई स्पष्ट ढांचा जमीन पर नहीं है। जमुई, हाजीपुर जैसे कुछ इलाकों में ही पार्टी का असर दिखता है। ताकतवर
विरोधी’ की भूमिका के साथ चिराग रामविलास की विरासत को आगे बढ़ाना चाहते हैं। निर्विवाद सत्य है कि रामविलास पासवान बिहार की राजनीति में दलितों के सबसे मजबूत स्तंभ माने जाते थे। पार्टी का संकट यह भी है कि चिराग के बाद पार्टी में कोई सेकंड लाइन नहीं है। सब कुछ चिराग के चेहरे पर ही निर्भर है। चिराग की भी मजबूरी यही है कि हर हाल में वे गठबंधन में रहकर अपनी सियासी सौदेबाजी का मैदान सजाएंगे।