शब्दों की सजती यात्रा, ‘नेपाली’ जी की स्मृति में झूम उठा विक्रमशिला महाविद्यालय

न्यूज स्कैन रिपाेर्टर, कहलगांव (भागलपुर)

जब शब्दों को साज मिल जाए, साहित्य को स्वर मिल जाए और श्रद्धा को मंच मिल जाए – तब जन्म होता है एक ऐसी सांस्कृतिक सुबह का, जो सिर्फ तारीख़ों में नहीं, स्मृतियों में दर्ज होती है। ठीक ऐसी ही एक सुबह आज विक्रमशिला महाविद्यालय, कहलगांव में देखी गई, जब राष्ट्रकवि गोपाल सिंह ‘नेपाली’ की जयंती पर “शब्द यात्रा” भागलपुर की पहल से एक भावभीना आयोजन किया गया। कार्यक्रम की शुरुआत दीप प्रज्वलित से हुआ। मंच पर उपस्थित लोगों का बुके और अंग वस्त्र से स्वागत किया गया।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे महाविद्यालय के प्रभारी प्राचार्य डॉ मिहिर मोहन मिश्र ‘सुमन’, जिनकी उपस्थिति स्वयं एक कविता जैसी लगी – शांत, गंभीर और अर्थपूर्ण। मुख्य अतिथि के रूप में मंच पर विराजमान थे वरिष्ठ पत्रकार, कवि और लघुकथाकार पारस कुंज, जिन्होंने ‘नेपाली’ जी के साहित्य को सिर्फ याद नहीं किया, बल्कि जीवंत कर दिया।

विशिष्ट अतिथि श्रीमती रूपम पांडेय, श्रीमती सपना चंद्रा और डॉ रोज़ी निक्की ने जब ‘नेपाली’ के शब्दों की थाह ली, तो ऐसा लगा मानो हर श्रोता अपने भीतर कहीं उन्हें महसूस कर रहा हो। पूर्ववर्ती छात्र संगठन अध्यक्ष रणधीर चौधरी की उपस्थिति ने पीढ़ियों के पुल को जोड़ दिया।

कार्यक्रम का संचालन डॉ संतोष कुमार ने इतनी सादगी और संवेदना से किया कि मंच और श्रोता – दोनों के बीच की दूरी मिट गई। कार्यक्रम के दौरान मंच संचालक से एक त्रुटि हो गई। उन्होंने उल्लेख किया कि ‘नेपाली’ जी का निधन कहलगांव में हुआ था। इस त्रुटि को सुधारते हुए एक छात्रा ने स्पष्ट किया कि उनका निधन भागलपुर में हुआ था।

शिक्षकों की उपस्थिति भी रही विशेष –
डॉ सिकंदर चौधरी से लेकर डॉ मौसम कुमारी तक, हर शिक्षक इस आयोजन का हिस्सा नहीं, उसकी आत्मा लगे। ऐसा लगा जैसे पूरा महाविद्यालय एक कविता बन चुका हो, जिसकी हर पंक्ति में ‘नेपाली’ जी की गूंज हो।

छात्रों का जोश भी कम न था।
आयुषी, मीनाक्षी, संजीता, अंशु, निकिता, पूजा, कोमल, सपना, तनु, सोनी – इन नामों ने मंच पर रंग बिखेरे, तो सौरभ और अन्य छात्रों ने पर्दे के पीछे से इस कविता को आकार दिया।

यह सिर्फ एक कार्यक्रम नहीं था, यह एक संवाद था – अतीत से वर्तमान तक, साहित्य से संस्कृति तक और शब्दों से चेतना तक। और शायद इसीलिए, जाते-जाते हर किसी के मन में बस एक ही पंक्ति रह गई:
“शब्द मरते नहीं, वे बस रूप बदल लेते हैं।”