नहीं रहीं गोली खाने का हौसला रखने वाली आज़ाद हिंद फौज की वीरांगना आशा सहाय

  • झांसी रानी रेजिमेंट की सेकेंड लेफ्टिनेंट थीं आशा भारती सहाय


ततहीर कौसर, पटना
भागलपुर की धरती ने कई वीरों को जन्म दिया है, लेकिन नाथनगर की आशा भारती सहाय जैसी साहसी बेटी कम ही मिलती है। आज़ाद हिंद फौज की इस महिला योद्धा ने वो सवाल सुना था, जिसे सुनकर कई लोग कांप जाते — “दुश्मनों को गोली मार सकोगी? खुद गोली खा सकोगी?”
और आशा ने बिना पलक झपकाए कहा था “हां, बिल्कुल।” झांसी रानी रेजिमेंट की सेकेंड लेफ्टिनेंट आशा भारती सहाय के बेटे संजय ने कहा कि मां अंतिम दिन तक एक योद्धा की तरह रहीं। 97 वर्ष की उम्र में उन्होंने हमें अलविदा कहा लेकिन अंतिम क्षण तक वे हमें हौसला देती रहीं। डॉक्टर ने उन्हें एडमिट होने कहा तो साफ कह दिया कि अब एडमिट नहीं होंगी। उन्होंने मंगलवार को पटना के एसके पूरी स्थित आवास में अंतिम सांसें लीं।

किशोरावस्था में देश के लिए उठाए हथियार, घायलों की सेवा भी की

साल 1943, नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने महिलाओं की ‘रानी झांसी रेजीमेंट’ बनाई थी। आशा तब महज किशोरी थीं, लेकिन देश की आजादी के लिए उनकी आंखों में वही ज्वाला थी, जो रणभूमि में उतरने वालों के दिल में होती है। उन्होंने ट्रेनिंग ली, हथियार उठाए और अपनी रेजीमेंट के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आज़ादी के संघर्ष में उतर पड़ीं। उन्होंने वहीं नर्सिंग की भी ट्रेनिंग ली और घायलों का इलाज कर उनकी जान बचाई।

नेताजी के शब्द – जीवन का स्थायी हिस्सा

नेताजी का करिश्मा और उनका सवाल आशा की जिंदगी का स्थायी हिस्सा बन गया। कई बार उन्होंने बताया था कि जब नेताजी ने वो सवाल किया, तब उनके भीतर डर नाम की चीज़ ही नहीं थी “देश की आज़ादी के लिए अपनी जान कुर्बान करना मेरे लिए गर्व की बात थी।”
आज़ादी के बाद का जीवन उतना रोशन नहीं था, जितना उस दौर का संघर्ष। आशा ने अपनी यादों में नेताजी के साथ बिताए पल, ट्रेंच में बिताई रातें, और साथी महिलाओं के अदम्य साहस को हमेशा सहेज कर रखा।

आने वाली पीढ़ियों के लिए संदेश

उनके घर में नेताजी की तस्वीरें और कुछ यादगार चीज़ें हमेशा सजी रहीं। अब उनके साथ एक जीवित इतिहास, एक साहस की मिसाल भी चली गई। लेकिन वो आने वाली पीढ़ियों के लिए ये संदेश छोड़ गईं देशभक्ति केवल शब्दों में नहीं, बल्कि उस हिम्मत में है, जब मौत सामने खड़ी हो और आप फिर भी पीछे न हटें।
आज, जब हम आज़ादी के 78 साल में प्रवेश करने वाले हैं तो श हमें रुककर ऐसे योद्धाओं को याद करना चाहिए। जिनकी बंदूकें अब खामोश हैं, लेकिन उनकी हिम्मत और संघर्ष से मिली आजादी अब भी हमारे दिलों में धड़काती है।