कहोल ऋषि की मिट्टी से उगते इतिहास के स्वर,  पुरातात्विक गौरव को संजोएगा भागलपुर संग्रहालय

 प्रदीप विद्रोही , भागलपुर

अब भागलपुर संग्रहालय की टीम विक्रमशिला महाविहार की चौहद्दी पार कर, बटेश्वर स्थान, गंगा के बीचोंबीच उठती तीन प्राचीन पहाड़ियों और अन्य विस्मृत स्थलों की ओर कूच करेगी। वहां समय की परतों में छिपे अवशेषों को खोजा जाएगा – सहेजा जाएगा – ताकि वे फिर से कह सकें अपनी कहानी। डॉ. सुधीर कुमार यादव, जो भागलपुर संग्रहालय की धुरी हैं, कहते हैं – “कहलगांव मात्र एक भूखंड नहीं, बल्कि संस्कृति की जीवित चेतना है। यहां की भूमि ने बौद्ध ज्ञान के दीप जलाए, जिनकी रोशनी नालंदा के समकक्ष मानी जाती थी।” यूं  कहें अब कहलगांव के पुरातात्विक गौरव को संजोने की क़वायद संग्रहालय, भागलपुर ने शुरू कर दिया है। डॉ. यादव बताते हैं कि कहलगांव में संग्रहालय का एक स्वतंत्र परिसर बनाया जाएगा। इस दिशा में प्रशासनिक स्तर पर बातचीत प्रारंभ हो चुकी है। योजना है – एक मास्टर प्लान की, जो इतिहास के बिखरे मोतियों को फिर से माला में पिरो सके। स्थानीय विशेषज्ञों, बुज़ुर्गों और जानकारों से विमर्श होगा; फिर एक टीम गठित कर इन धरोहर स्थलों पर जाकर अवशेषों को संग्रहित किया जाएगा।

उत्तरवाहिनी गंगा के नर्म बहाव के बीच, कहोलऋषि यानी तपोभूमि, तापभूमि कहलगांव की धरती वर्षों से इतिहास की पदचापों को अपने भीतर समेटे हुए है। कहलगांव जैसे ऐतिहासिक स्थल पर अब तक कोई अनुसंधान नहीं हो सका है। कहलगांव क्षेत्र को सप्त ऋषियों की पावन भूमि कहा गया है। जिनमें जह्नु ऋषि, वशिष्ठ ऋषि  दुर्वासा ऋषि, ऋष्यशृंग ऋषि, उद्दालक अरुणि ऋषि, कहोल या कहोड ऋषि व अष्टावक्र ऋषि हैं। 

इस माटी की छाती से अब वे पुरातात्विक स्वर उभरने को हैं, जिन्हें समय की धूल ने ढक दिया था। भागलपुर संग्रहालय ने संकल्प लिया है – उस विरासत को पुनः उकेरने का, जिसे इतिहास ने रचा था और वर्तमान भूलने को था। ओरियप गांव में शक्ति पूजन के तीन स्थल सुंगल देवी, असावरी देवी, बांसुरी देवी आज भी विद्यमान है। 

तीन पहाड़ियों की कथा – जहां गंगा ने मोड़ा अपना पथ

गंगा, जो सदा प्रवाहमान है, कहलगांव में एक बार ठिठकी थी। तीन पहाड़ियां – जो कभी पास – पास थीं, श्वेत रेत इनके पांव पखारते थे। इन पहाड़ियों के समीप 1961 में हुए यज्ञ के बाद अब तीन पहाड़ी गंगिया की लहरों से बातें करती हैं।

जनश्रुति कहती है कि एक यज्ञ के बाद रूठी गंगाधारा इन पहाड़ियों को छूती हुई बटेश्वर की ओर उत्तरायन हो चली और तभी से यह स्थल साधना, संतुलन और संस्कृति का संगम बन गया। सबसे बड़ी उत्तरवाहिनी गंगा और कहीं नहीं कहलगांव से बटेश्वर के बीच आज भी मौजूं है। 

चीनी यात्री ह्वेनसांग ने सातवीं सदी में इन स्थलों की यात्रा की थी और इन पहाड़ियों की एकता का उल्लेख किया था। कनिंघम ने भी, उस यात्रा वृत्तांत पर चलते हुए, यहां की गुफाओं और चट्टानों में रचे इतिहास को शब्द दिए थे। सन 29 जनवरी को बुकानन ने कहलगांव की गंगा नदी में अवस्थित तीन पहाड़ियों को देखा था। 

बुद्धा आश्रम रॉक कट टेंपल

गंगा की बीच धार में अवस्थित तीनपहाड़ी क्रमशः नानकशाही आश्रम, तापस आश्रम व बुद्धा आश्रम के नाम से इतिहास में दर्ज है।मौजूदा समय में ये पहाड़ी शांति बाबा, बंगाली बाबा व पंजाबी बाबा पहाड़ी के नाम से जाना जाता है.बुद्धा आश्रम यानी पंजाबी बाबा पहाड़ी को एएसआई ने अपने अधीन ले रखा है। पुरातत्वविदों-इतिहासकारों ने इसे ‘रॉक कट टेंपल’ कहा है.इसकी निर्माण की अवधी पाल सेन काल 8 वीं से 12 वीं शताब्दी माना गया है।

वहीं इतिहासकार पीसी चौधरी ने गजेटियर में लिखा है कि यहां जहान्वी ऋषि का आश्रम है। कहलगांव के इतिहासकार स्व प्रो विनय प्रसाद गुप्त ने अपनी पुस्तक ‘कहलगांव का इतिहास’ में कहा है कि पूर्व में कहलगांव,बटेश्वर स्थान व आस-पास का पहाड़ी इलाका ऋषि मुनियों को आकर्षित करता रहा है। इस तीनपहाड़ी पर भी कई ऋषि मुनियों ने तप किये थे.

एक सांस्कृतिक नक्षत्र – कहलगांव

पाल वंश के स्वर्णिम युग में यह भूमि फलित हुई – जहां व्यापार भी था, तपस्या भी; संस्कृति भी थी, चेतना भी। कहलगांव केवल नक्शे पर नहीं, चेतना के आकाश में एक स्थिर नक्षत्र है – जो युगों से टिमटिमा रहा है। यहां ऋषि कोहल और महर्षि वशिष्ठ की तपस्थली है, और बाबा बटेश्वरनाथ का मंदिर, जिसे जनमानस ‘गुप्तकाशी’ कहकर नमन करता है। यह नगर केवल पुरातात्विक नहीं, आत्मिक स्थल है। वह जहां पत्थर भी संवाद करते हैं और हवाएं भी कहानियां सुनाती हैं। पहाडियों पर आकाश को छूती हरियाली, गुनगुनाती, सरसराती पत्तियां। 

एक नव संग्रहालय – जहां मिट्टी बोलेगी

डॉ. यादव बताते हैं कि कहलगांव में संग्रहालय का एक स्वतंत्र परिसर बनाया जाएगा। इन अवशेषों को जब संग्रहालय की छांव में रखा जाएगा, तब कहलगांव की कहानी को वह मंच मिलेगा, जिसकी वह सदीयों से अधिकारी थी। और जब कोई आगंतुक इन धरोहरों को देखेगा, तो वह केवल देखेगा नहीं – वह अनुभव करेगा। जैसे कोई भूला हुआ स्वप्न स्मृति में लौट आया हो।

यह पहल केवल एक संग्रहालय बनाने की नहीं, बल्कि अपनी मिट्टी से संवाद करने की चेष्टा है। कहलगांव बोलेगा – अपने पत्थरों, अपनी लहरों, और अपनी विरासत के माध्यम से और भागलपुर संग्रहालय उसका मूक अनुवादक होगा – शब्दों में, चित्रों में, और चेतना में।