- राजेश रंजन, संपादक, द न्यूज स्कैन
बिहार की राजनीति इस समय फिर एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है, जहाँ शब्दों की गरिमा और लोकतांत्रिक मर्यादाएं जूते के नीचे आ चुकी हैं। राजद विधायक भाई वीरेंद्र का ताजा बयान, “जनता का काम नहीं करने वाले अफसरों का इलाज अब जूतों से होगा”। यह बयान न सिर्फ असंवैधानिक है बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भी चोट करता है। इससे शर्मनाक भला क्या हो सकता है? भाई वीरेंद्र जैसे नेता भी इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था की वजह से ताकत में हैं। शर्मनाक तो यह भी कि समर्थकों ने बाकायदा उन्हें दस नंबर का बाटा जूता गिफ्ट किया और आग्रह किया कि इसी से भ्रष्ट अधिकारियों की ‘सेवा’ की जाए। भाई वीरेंद्र ने खुशी-खुशी यह उपहार स्वीकारा भी। ये बेहद चिंताजनक स्थिति है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि, क्या हम अब लोकतंत्र की जगह लाततंत्र की ओर बढ़ रहे हैं? यह लोकतंत्र की आत्मा पर हमला है।
भाई वीरेंद्र कोई अपवाद नहीं हैं। कुछ ही दिन पहले राजद के तेजप्रताप यादव ने पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष मंगनीलाल मंडल को “पागल” बताया और कहा कि “उन्हें रांची पागलखाना भेज देना चाहिए, खर्च मैं उठाऊंगा”। जवाब में मंगनीलाल मंडल ने कहा, “तेजस्वी के आगे किसी की औकात नहीं।” इधर भाजपा के सम्राट चौधरी को 24 घंटे में गोली मारने की धमकी मिलती है, और वे कहते हैं, “जिसको जो करना है, करता रहे।” यह बयान बहादुरी नहीं, बल्कि शासन-प्रशासन की विफलता का नमूना है। आखिर सरकार में शीर्ष पद पर बैठा व्यक्ति एेसे बयान कैसे दे सकता है? यह तो स्पष्ट तौर पर सरकारी तंत्र की विफलता पर पर्दा डालने जैसा है। ये नेता सिर्फ बयान नहीं दे रहे बल्कि पूरी व्यवस्था को गिरवी रख रहे हैं।
बात-बात पर जूता, औकात, पागलखाना, गोली? आखिर ये कैसी भाषा है? यह वही बिहार है जहाँ कभी जेपी, कर्पूरी ठाकुर और लोहिया जैसे नेताओं ने राजनीति में एक नई और शानदार संस्कृति को जन्म दिया? विडंबना यह कि आज बिहार की राजनीति में शीर्ष पर बैठे ज्यादातर लोग खुद को इन शीर्ष शख्सियतों की ही परंपरा और संस्कार का होने का दावा करते हैं। आज वही धरती शब्दों की सस्ती सनसनी और राजनीति की गिरावट की गवाह बन गई है। यह सियासत का शायद सबसे शर्मनाक दौर है। चुनाव आने वाला है। जाहिर है, नेता अब दावे-हकीकत और मुद्दों की नहीं बल्कि जूते, गालियों और तंजों से चुनावी की जमीन तैयार कर रहे हैं। ऐसे में जनता को भी शायद अपने ‘जूते’ तैयार रखने होंगे… वोट के रूप में, विवेक के रूप में और जवाबदेही की ताकत के रूप में।
क्योंकि अलग लोकतंत्र नहीं बचा तो देश नहीं बचेगा। ये नागरिकों के लिए भी अपनी गंभीर जिम्मेदारी निभाने का वक्त है।